satya kya hai

जब तक तुम्हारी चेतना बहिर्मुखी है, तुम देह हो, तुम संसार हो, तुम सम्बन्ध हो, तुम प्रेम हो, तुम वासना हो, तुम कामना हो, तुम अहंकार हो। किन्तु ज्यो ही तुम अंतर्मुखी हो स्वयम से स्वयम तक कि यात्रा आरम्भ कर देते हो, वही सभी विषय पीछे छूटते चले जाते है।

जो सत्य है वही शिव है, और जो शिव है, वही सूंदर है। इसीलिए कहा गया है – सत्यम, शिवम्, सुंदरम। सत्य वह होता है जो तीनों कालों में सत्य हो। भुत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालो का द्रष्टा है वही सत्य है।  जिससे सब उत्पन्न होता है और जिसमे सब विलीन हो जाता है वही सत्य है। जो सोये हुओं में जागता है वही सत्य है। जिससे सब प्रकाशित होता है वही सत्य है। जहाँ से सारा ब्रह्माण्ड उपजता है और जहाँ जाकर फिर समाप्त हो जाता है वही सत्य है।
यह धरती सत्य नहीं है।  यह आकाश सत्य नहीं है।  यह हवा सत्य नहीं है।  यह जल सत्य नहीं है। यह अग्नि भी सत्य नहीं है, क्योंकि सब बदलने वाला है, लेकिन जो बदलने वाले को जनता है वह सत्य है। 


हमारा मूल कारण हमारे माँ बाप नहीं है। हमारा मूल कारण परमात्मा है जिससे सब उत्पन्न होता है।  वही मुसलमानो का अल्लाह है, वही इसाईयों का मसीहा है, वही सिक्खो का बाहेगुरु है, वही हिन्दुओ का कृष्ण और राम है। 


विश्व का प्रकाशक कोई अलग अलग पीर-पैगम्बर और भगवन नहीं बल्कि एक ही सनातन सत्य सबका कर्ता, धर्ता और भोक्ता है।  उसी को लोग अलग अलग नामों से सम्बोधित करते हैं।  वही दुर्गा और काली बनकर बैठा है और वही अल्लाह और कृष्ण -राम है। कबीर दास ने कहा है – हैरत हैरत हे सखी खुद ही गयी हेराय।  यानि जो उसको खोजता है वह उसी में डूब जाता है, उसी में खो जाता है । 

इस संसार में सब अपने को होशियार समझते हैं लेकिन कोई भी अपने को नहीं जानता है। तो जो अपने नहीं जानता है वह होशियार कैसे हो सकता है। करोडो में कोई एक अपने को जानने के तरफ लगता है और वह मनुष्यता को प्राप्त होता है, बाकि तो सब मुर्ख ही रह जाते हैं।  मुर्ख लोग अपने को जानकर बाकि सब चीजों की जानकारी हासिल करते हैं। उसकी हासिल करते हैं जो अपना नहीं है। हर जगह मूर्खो की भीड़ है इसीलिए देश और समाज में हाहाकार मचा है। मेरा तेरा का झगड़ा चलता रहता है। 

जब तुम स्वयम से ही अपरिचित हो, तो तुम्हारा देह में होना इंद्रियां में होना, कामनाएं- वासनाएं होना भी कैसे सत्य हो सकता है। यह सांसारिक सत्य हो सकते है किंतु तुम्हारा सत्य नही हो सकता। इस संसार के माध्यमो के द्वारा तुम किसी भी सत्य को प्राप्त भी कैसे कर सकते हो। जिस प्रकार यह संसार तुम्हारा है उसी प्रकार यह देह भी तुम्हारा है। इस देह में तुम हो यह देह संसार मे है। इसे विपरीत क्रम में देखो … तुम्हारी देह संसार मे है और तुम तुम्हारे देह के संसार मे हो। देह है ज्ञात, क्यों कि देह सूचित कर रहा है कि वह है। संसार है यह भी ज्ञात है क्योंकि संसार एवम देह दोनो परस्पर एक दूसरे को सूचित कर रहे है कि वे हैं । किन्तु तुम हो ये केवल तुम जानते हो।

देह से पूछ कर देखोगे संसार से पूछ कर देखोगे तो वे तुम से अनिभिज्ञ है, अपरिचित है। वे कहेंगे तुम देह हो, तुम चित्त हो, तुम इंद्रिया हो। किन्तु वास्तव में तुम क्या हो,
वे कुछ भी कर के किसी भी प्रकार तुम्हे तुम तक नही पहुचा सकते। क्योंकि तुम हो केवल यही सत्य है। तुम जीवित हो यह तुम्हारा भ्रम है …यह संसार जीवित है यह तुम्हारा भ्रम है। इस संसार मे कुछ भी सत्य है यह तुम्हारा भ्रम  है। वास्तव में तो यदि कुछ सत्य है तो वह है केवल तुम्हारा होना है। तुम हो कही और नही हो, तुम तुम्ही में हो। इस देह में नही इस संसार मे नही। तुम तुम्ही में हो। चेतना रूपी स्वात्म को धारण करने वाली आत्मा में निवासित परम् आत्मा हो तुम हो।

जब तक तुम्हारी चेतना बहिर्मुखी है, तुम देह हो, तुम संसार हो, तुम सम्बन्ध हो, तुम प्रेम हो, तुम वासना हो, तुम कामना हो, तुम अहंकार हो। किन्तु ज्यो ही तुम अंतर्मुखी हो स्वयम से स्वयम तक कि यात्रा आरम्भ कर देते हो, वही सभी विषय पीछे छूटते चले जाते है।

तुम स्वयम तक पहुँचकर, स्वयम को पा जाते हो और स्वयम पाकर उसमे में स्थिर हो जाते हो  तो तुम्ही सत्य हो। अन्य सभी मिथ्या है, भ्रम है।

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