Kya Kamvasna swabhavik hai

कामवासना को नियंत्रित करना कितना जरूरी है ? Kamvasna ko niyantrit karna Kitna Jaruri hai ? क्या कामवासना स्वभाविक है ? Kya Kamvasna swabhavik hai ? क्या कामवासना को नियंत्रित करना चाहिए ? Kya Kamvasna ko niyantrit karna chahiye? भोग आदमी को क्यों रोग देता है? Bhog aadami ko kyon rog deta hai?


आहार तो शरीर को पोषण देता है। उसके बिना जीना असंभव हो जाता है जबकि कामवासना के पोषण के सिवा हम जी ही नहीं सकते ऐसा नहीं है। इसके विपरीत कामवासना नियंत्रित करने पर सर्वांगीण आरोग्य, विलक्षण मानसिक व बौद्धिक लाभ प्राप्त होता है। आइंस्टीन के वर्षों के ब्रह्मचर्य ने हीं तो उसको प्रसिद्ध कराया। रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि, स्वामी विवेकानंद आदि ब्रह्मचर्य एवं संयम ने ही  सर्वश्रेष्ठ आत्मा अनुभव में प्रतिष्ठित किया, जगजाहिर है। मीराबाई का संयम उनको जीवन के सर्वोपरी शिखर पर पहुंचाने में सहायक हुआ कि नहीं ? बिलासी मनोवृति का सोचना भ्रामक है। काम विकार में गिरने वालों को कराहने के सिवाय क्या मिलता है ? समझ लीजिए भैया ! फिर न रोना, फिर न सिसकना, संयम की सीख संयम। 

एक दृष्टि से जगत दुखालय कहा जाता है। इसमें दुख स्वभाविक माना जाता है। फिर भी दुख से मुक्त होने के लिए यत्न नहीं करना चाहिए ऐसा कोई नहीं कहता। ऐसे ही कामवासना को स्वभाविक बतलाने वाले भी उस से मुक्त होने के लिए यत्न नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं कह सकते। 

धर्मशास्त्र धार्मिक क्रियाओं में शौच, लघुशंका, छींक, खांसी जैसे प्राकृतिक वेगों का निराकरण करने की अनुमति देते हैं, जिससे देह का आरोग्य बना रहे। परंतु कामवासना के आवेग की पूर्ति करने की अनुमति नहीं देते। यदि वासना प्राकृतिक वेग होती या उसको न भोगने पर शरीर की कोई हानि हो जाती तो धर्म ने उसके लिए अवश्य छूट दी होती। स्पष्ट है कि धर्म कामवासना को प्राकृतिक वेग या स्वाभाविक नहीं मानता। 

वैसे तो क्रोध भी एक स्वभाविक आवेग है। जीवन शास्त्र की दृष्टि से या अन्य किसी भी तरह क्रोध के आवेश के क्षणों में किसी का खून कर डालना जैसे स्वभाविक या उचित नहीं माना जाता, उसी तरह काम आवेग के बस में होकर अपने व दूसरे के शरीर का बल नष्ट करना भी स्वभाविक या उचित नहीं माना जा सकता। 

एक तर्क यह भी दिया जाता है कि सभी यदि ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे तो प्रजातंतु आगे नहीं बढ़ेगा। कालांतर में सृष्टि का अंत आ जाएगा। अतः ब्रह्मचर्य पालन करना सृष्टि कर्ता के संसार चलाने के हेतु के विरुद्ध व्यवहार करना है। 

ऐसा तर्क करने वाले ईमानदारी से तर्क करते होंगे परंतु उसमें वे स्वयं को जाने अनजाने में धोखा दे रहे हैं। अपने कर्तव्य पालन से छूटने के लिए मन इधर उधर की शुभ दलीलों द्वारा सज्जन व्यक्ति को श्रेय मार्ग में जाने से रोक लेता है। सज्जन अशुभ तर्क के सामने तो टिक सकता है परंतु अशुभ जब शुभ के स्वांग में आ जाता है तब वह धोखा खा जाता है। ब्रह्मचर्य के विरुद्ध यह दलील भी ऐसी ही अशुभ, मायावी या शैतानी है। 

ब्रह्मचर्य के विरुद्ध ऐसी दलील मन में आए तब व्यक्ति को विचार करना चाहिए कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्या हम इस तरह से सोचते हैं। आयकर (इनकम टैक्स) के सही आंकड़ों को छुपा कर कम कर नहीं भरते ? तब मन में क्या यह विचार आता है कि यदि सभी ऐसा करेंगे तो कम कर मिलने पर सरकार राज्य कैसे चलाएगी। क्या कभी कतार तोड़कर बस में नहीं घुसते ? तब क्या यह सोचते हैं कि यदि सभी ऐसा करेंगे तो नागरिक अनुशासन का क्या होगा अर्थात जब व्यक्ति का कोई निजी स्वार्थ होता है तब वह दूसरों का ख्याल करना भूल जाता है। और स्वयं के लिए त्याग का समय आने पर दुनिया की चिंता के बहाने कर्तव्य से विमुख बन जाता है। उसी बीरबल वाली घटना की तरह जिसमें नगर के सभी लोगों को बादशाह के आदेश से एक लोटा दूध खाली हौज में डालना था। परंतु हौज भरा तो पानी से ही। क्योंकि सभी ने यही सोचा कि यदि मैं अकेला ही पानी भरा लोटा डालूंगा तो उसमें क्या फर्क पड़ जाएगा। यह क्यों नहीं सोचा कि सभी पानी डालेंगे तो हौज में दूध कहां से आएगा ?

हौज में एक लोटा पानी डालते समय व्यक्ति यही सोचता है कि मैं अकेला पानी डालूंगा तो हौज दूधरहित बन जाएगा, तो फिर यह क्यों नहीं सोचता कि मेरे अकेले के ब्रह्मचर्य पालन से दुनिया मानवरहित नहीं हो जाएगी। 

दुनिया की चिंता करने की दलील ह्रदय पूर्वक की गई दलील हो तो फिर प्रत्येक क्षेत्र में जगत के हित का ख्याल रखकर व्यक्ति व्यवहार करेगा। वास्तव में ऐसे सबके हित में रत समझदार व्यक्ति के मन में ब्रह्मचर्य के विरुद्ध ऐसी वाहियात दलील उत्पन्न ही नहीं होती। 

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