सिद्धियाँ कैसे प्राप्त की जाती है? Siddhiyan Kaise prapt ki Jaati Hai ? सिद्धि प्राप्ति के लिए क्या करना चाहिए? Siddhi Paane ke liye kya karna chahiye? सिद्धियां कैसे प्राप्त करें ? Siddhiyan kaise prapt karen? ईश्वर प्राप्ति कैसे होती है ? Ishwar Prapti Kaise hoti hai? सभी सिद्धियों की जननी है एकाग्रता ।Sabhi sidhiyon ki Janani Hai Akagrata.
उपनिषद का कहना है कि ईश्वर और संसार के बीच जो भेद है उसका मूल कारण है चित्त। चित्त न हो तो कोई भेद नहीं। इसलिए परमात्मा से चित्त को एकाग्र करने के लिए कहा गया है। एकाग्रता से परमात्मा का क्या संबंध है ? परमात्मा का अस्तित्व है या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है सबसे महत्वपूर्ण है चित् की एकाग्रता। चित्त को किसी भी वस्तु पर एकाग्र किया जा सकता है चाहे वह वस्तु कल्पित हो या वास्तविक। यह आवश्यक नहीं है कि किसी वास्तविक वस्तु पर चित्त को एकाग्र करेंगे तभी चित्त एकाग्र होगा। इसलिए उपनिषद यह नहीं कहता कि पहले परमात्मा को खोजो – फिर चित्त को एकाग्र करो। आपकी दृष्टि में परमात्मा काल्पनिक हो या वास्तविक हो इसकी कोई चिंता नहीं। अगर काल्पनिक बिंदु पर भी चित्त एकाग्र हो जाए तो भी मन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा और उसका दर्शन शुरू हो जाएगा जो वास्तविक में है।
ध्यान के मार्ग में जो साधक अग्रसर होता है – उसके लिए परमात्मा भी एक कल्पित बिंदु है। एक काल्पनिक वस्तु है। एक काल्पनिक आधार है। इसका मतलब यह नहीं है कि परमात्मा के अस्तित्व को अस्वीकार कर रहा हूं। ध्यान मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए अभी उसका अस्तित्व नहीं है। मेरे कहने का तात्पर्य है। उसके लिए परमात्मा का वह काल्पनिक अस्तित्व ‘राम’ भी हो सकता है। कृष्ण भी हो सकता है। कुछ भी हो सकता है।
इस चित्त की एकाग्रता से ही सारी सिद्धियां और सफलताएं हासिल की जाती है। जैसे-जैसे चित्त को एकाग्र करके हम परमात्मा के नजदीक पहुंचते हैं हमारे अंदर दैविक सिद्धियां अपने आप आने लगती हैं। सारा खजाना अपने अंदर भरा पड़ा है लेकिन हम बाहर भटकते रहते हैं। इसी चित्त को मन भी बोला जाता है और यह मन केवल विचारों का समूह मात्र है। जिसे चित् की एकाग्रता से नष्ट किया जाता है। किसी ने ठीक ही कहा है – “मन एक दर्पण है जिस पर विचार रूपी धूली जम जाती है जो इस धूलि को साफ कर देता है वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है।”
भोले बाबा ने कहा है :-
क्यों सिद्ध बनना चाहता, तुझी से सभी सिद्ध है।
है खेल सारी सिद्धियों का, तू सिद्ध का भी सिद्ध है।।
चाह न कर, चिंता न कर, चिंता ही बड़ी दुष्ट है।
है तू श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ मगर चाह करके भ्रष्ट है।।
धन किसलिए चाहता तू आप मालामाल है।
सिक्के सभी जहां से निकले वह तू टंकसाल है।।
आप चित्त को किस पर एकाग्र कर रहे हैं इसका महत्व नहीं है। महत्व यह है कि आप चित्त को एकाग्र कर रहे हैं। इसीलिए सारे धर्म इस काम के लिए उपयोग में लाए जा सकते हैं। ध्यान मार्ग के पथिक के लिए धर्म के सिद्धांतों में कोई भी मतभेद हो उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। धर्म और उसके सिद्धांतों के मतभेद से उसका कोई संबंध नहीं होता। उसका संबंध मात्र आधार से होता है, आधार के रूप और नाम से नहीं। धर्म का जो विज्ञान है, धर्म की जो प्रक्रिया है, उसका मुख्य उद्देश्य यह नहीं है कि आप चित्त को किस वस्तु पर एकाग्र कर रहे हैं। बस आपका चित्त एकाग्र हो रहा है यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। चित्त को एकाग्र करने से मन का नाश हो जाता है और मनोनाश होकर जो जाना जाता है उसका ही नाम न राम है, न कृष्णा, अल्लाह है। एक योगी के लिए जो ध्यान मार्ग पर अग्रसर है उसके लिए ये सारे के सारे नाम कल्पित और अनुपयोगी हैं। यह बात साधारण धार्मिक व्यक्ति की समझ में नहीं आता कि उसके राम, उसके कृष्ण, उसकी मूर्तियां, उसके मंदिर सब काल्पनिक है। काल्पनिक का अर्थ “झूठे” नहीं है। काल्पनिक का अर्थ है उसका उपयोग किया जा सकता है। उनका आश्रय लेकर ध्यान की यात्रा की जा सकती है। उनका आधार लेकर साधना, उपासना का मार्ग निश्चित किया जा सकता है। जब यात्रा समाप्त हो जाती है तब साधना, उपासना का लक्ष्य पूरा हो जाता है। तब पता चलता है कि उसके बिना भी यात्रा हो सकती थी। उनके बिना भी लक्ष्य पर पहुंचा जा सकता था। अंत में यह भी पता चलता है कि यात्रा, उपासना आदि दूसरे नामों से भी संभव था लेकिन शुरू में इसका पता नहीं चलता है।
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प्रत्येक धर्म वाले अपने अपने संप्रदाय के सिद्धांतों के अनुसार यात्रा पर चलते हैं। साधना, उपासना आदि का मार्ग अपनाते हैं। जब वे अपने लक्ष्य पर पहुंचते हैं तब न हिंदू रह जाते हैं न मुसलमान रह जाते हैं न ईसाई रह जाते हैं। सभी उस लक्ष्य पर पहुंचकर केवल धार्मिक रह जाते हैं।