शुचीनां श्रीमतां गेहे जायते सुकृति यथा। तथा विधानं नियमं तत्पित्रो कथयामि ते।।
ऋतुकाले तु नारीणां त्यजेदिन चतुष्टयम। तावन्ना लोक यद्वक्त्र पापं बपुषि संभवेत।।
– गरुड़ पुराण
पुण्यात्मा जीव पवित्र आचरण करने वाले लक्ष्मी संपन्न गृहस्थों के घर में जब उत्पन्न होता है और उसके पिता एवं माता के विधान तथा नियम जिस प्रकार के होते हैं उनके विषय में तुमसे कहता हूं। स्त्रियों के ऋतु काल में 4 दिन तक उनका त्याग करना चाहिए, उनसे दूर रहना चाहिए। उतने समय तक उनका मुख भी नहीं देखना चाहिए। क्योंकि उस समय उनके शरीर में पाप का निवास रहता है।
चौथे दिन वस्त्रों सहित स्नान करने के अनंतर वह नारी शुद्ध होती है। तथा 1 सप्ताह के बाद पित्रों एवं देवताओं के पूजन, अर्चन तथा व्रत करने के योग्य होती है। 1 सप्ताह के मध्य में जो गर्भधारण होता है उसे मलिन मनोवृति वाली संतान का जन्म होता है। परंतु ऋतु काल के आठवें दिन गर्भाधान से पुत्र की उत्पत्ति होती है। ऋतु काल के अनंतर युग्म यात्रियों में गर्भाधान होने से पुत्र और अयुग्म रात्रियों में गर्भाधान से कन्या की उत्पत्ति होती है। इसलिए पूर्व की सात यात्रियों को छोड़कर युग्म में रात्रि में में ही समागम करना चाहिए।
स्त्रियों के रजोदर्शन से सामान्यतः 16 रात्रियों तक ऋतुकाल बताया गया है। चौदहवीं रात्रि को गर्भधान होने पर गुणवान, भाग्यवान और धार्मिक पुत्र की उत्पत्ति होती है। सामान्य मनुष्य को गर्भाधान के निमित्त उस रात्रि में गर्भाधान का अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है।
पांचवे दिन स्त्री को मधुर भोजन करना चाहिए, कड़वा, खारा, तीखा तथा उष्ण भोजन से दूर रहना चाहिए। तब वह स्त्री का क्षेत्र (गर्भाशय) औषधि का पात्र हो जाता है और उसमें स्थापित बीज अमृत की तरह सुरक्षित रहता है। उस औषधी क्षेत्र ((गर्भाशय) में गर्भाधान करने वाला स्वामी अच्छे फल (स्वस्थ संतान) को प्राप्त करता है। तांबूल खाकर, पुष्ट और श्रीखंड चंदन से युक्त होकर तथा पवित्र वस्त्र धारण करके मन में धार्मिक भाव को रखकर पुरुष को सुंदर शैया पर सहवास करना चाहिए। गर्भाधान के समय पुरुष की मनोवृति जिस प्रकार की होती है उसी प्रकार के स्वभाव वाला जीव गर्भ में प्रविष्ट होता है। बीज का स्वरूप धारण करके चैतनयांश पुरुष की शुक्र में स्थित रहता है। पुरुष की कामवासना, चित्तवृत्ति तथा शुक्र एकत्व को प्राप्त होते हैं तभी स्त्री के गर्भाशय में पुरुष का वीर्य स्खलित होता है। स्त्री के गर्भाशय में शुक्र और शोणित के संयोग से पिंड की उत्पत्ति होती है।
इस प्रकार गर्भ में आने वाला सुकृति पुत्र पिता-माता को परम आनंद देने वाला होता है और उसके पुंसवन आदि समस्त संस्कार किए जाते हैं। पुण्यात्मा पुरुष ग्रहों की उच्च स्थिति में जन्म प्राप्त करता है। ऐसे पुत्र की उत्पत्ति के समय ब्राह्मण बहुत सारा धन प्राप्त करते हैं। वह पुत्र विद्या और विनय से संपन्न होकर पिता के घर में बढ़ता है और सत्तपुरुषों के संसर्ग से सभी शास्त्रों में पांडित्य संपन्न हो जाता है। वह तरुण अवस्था में दिव्य अंगना आदि का योग प्राप्त करता है और दानशील तथा धनी होता है।
– साभार : गरुड़ पुराण