गुरु की सम्प्रेषण शक्ति क्या होती है ? Guru ki sampreshan Shakti kya hoti hai ? सम्प्रेषण शक्ति कैसे काम करता है ? Sampreshan Shakti Kaise kaam karta hai ? सम्प्रेषण शक्ति की संपूर्ण जानकारी । Sampreshan shakti ki Sampurn jankari. गुरुद्वारा शिष्य में शक्ति संचार कैसे होता है ? Guru dwara shishya Me Shakti Sanchar kaise hota hai ?
गुरु द्वारा शिष्य को ज्ञान प्रदान करने की दो पद्धतियां हैं – एक का नाम है शिक्षण और दूसरे का संप्रेषण। जब मौखिक रूप से ज्ञान प्रदान किया जाता है तथा उसे ग्रहण करने समझने और उसके विश्लेषण का आधार बुद्धि होती है तो इस पद्धति को शिक्षण कहते हैं। किंतु जब ज्ञान का संचार सूक्ष्म स्तर पर हो, संचार का वाहन और अवचेतन मन हो तथा ग्रहण करने वाला भी अवचेतन मन ही हो तो इस पद्धति को संप्रेषण कहते हैं।
समय-समय पर ऐसे गुरु और शिष्य हुए हैं, जिनके बीच ज्ञान का संचार बिना किसी भौतिक संपर्क के होता रहा है। ऐसे संचार के मार्ग में भौगोलिक बाधाएं कोई अर्थ नहीं रखती। गुरु चाहे कितने भी दूर हो शिष्य अपने गुरु के साथ मानसिक संबंध जोड़ कर अपनी आंतरिक उन्नति कर लेता है। एक दो बार उनके संपर्क में आकर फिर दूर होने का होने पर भी भावनाओं, विचार चिंतन के द्वारा उनके साथ मानसिक संबंध से उनकी विचारधारा, उनकी शैली, उनकी प्रेरणा पाकर हुआ बहुत ऊंचा उठ जाता है। जैसे एकलव्य था। गुरु जी के आश्रम में रहने को नहीं मिला तो कोई बात नहीं, गुरु जी को देख लिया। मिट्टी गारे से गुरु जी की मूर्ति बनाई और देखते-देखते का एकाकार हुआ, मानसिक संबंध जोड़ा तो धनुष विद्या में इतना प्रखर हो गया कि अर्जुन जैसा योद्धा भी बौना रह गया। मानसिक संबंध से गुरु की कैसी कृपा उसने अपने अंदर विकसित कर दी।
गुरु और शिष्य के बीच जो संप्रेषण होता है वह सामान्यता मनोमय कोष और विज्ञानमय कोष के स्तर पर होता है। एक नया शिष्य गुरु के साथ मानसिक स्तर पर संचार स्थापित करने में सक्षम होता है। इस स्तर पर वह अपने विचारों भावनाओं आदि के माध्यम से संपर्क करता है और उनका आशीर्वाद भी प्राप्त करता है। जब संचार अधिक सशक्त और संबंध दृढ़ होता है तथा चेतना के स्तर ऊंचा उठता है तब गुरु और शिष्य के बीच आत्मिक स्तर पर संप्रेषण होने लगता है। मंत्र के द्वारा गुरु दिव्य आध्यात्मिक शक्ति का संप्रेषण कर सकते हैं। इसलिए उसे गुरु मंत्र बड़ा मंत्र कहते हैं। गुरु से, गुरु के अनुभव से शिष्य को एकाकार करने के लिए मंत्र बहुत ही सक्षम माध्यम होता है। गुरुद्वारा संप्रेषित शिष्य के आंतरिक मस्तिष्क द्वारा स्वीकृत किया गया ज्ञान बौद्धिक प्रदूषण से पूर्णतः मुक्त होता है। यह जगत का जो बौद्धिक ज्ञान है। इस बौद्धिक प्रदूषण से, बौद्धिक कसरत से संप्रेषित ज्ञान निराला होता है।
बुद्धि एक अति अक्षम उपकरण है। विश्लेषण, गणित या आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर आध्यात्मिक विद्या को कदापि आत्मसात नहीं किया जा सकता और नहीं कभी नापा जा सकता है। सारे जगत की बुद्धियाँ और आधुनिक विज्ञान का जहां अंत होता है वहां से आध्यात्मिकता की शुरुआत होती है। जहां सारी दुनिया की बुद्धियाँ समाप्त होती हैं वहां से वेदांत शुरू होता है। यह ऐसा दिव्य खजाना है। बुद्धि इसको नहीं जान सकती। मती न लखे जो मती लखे। जिसको बुद्धि नहीं देख सकती लेकिन जो बुद्धि को देखता है। सँड़सी तपेली को पकड़ सकती है लेकिन जो हाथ उसे पकड़ता है उसे कैसे पकड़ेंगी। ऐसे ही बुद्धि जो भी पकड़ेगी जगत का ही पड़ेगी, माया का ही पकड़ेगी। वह बुद्धि दाता को समझ नहीं सकती जहां से जहां वाणी जा नहीं सकती, मन लौटकर आता है। उस परमात्मा में विश्रांति पाकर ब्रह्मवेत्ता अपने आनंद स्वरूप में रमण करते हैं। फिर वे भयभीत नहीं होते। मेरा यह चला जाएगा, मैं मर जाऊंगा ऐसी भ्रांति उनको कभी नहीं होती। वह समझते हैं जिसका जन्म व मौत होती है तथा जो बीमार होता है वह शरीर में नहीं हूँ। जो चिंता करता है वह मन मैं नहीं हूं। जो राग द्वेष कर रखती है वह बुद्धि में नहीं हूँ। उनको अपने शुद्ध ‘मैं’ का पता होता है।