हम सब बार-बार जन्म लेते हैं और बार-बार मरते हैं। मगर हर जन्म और हर मरण मूर्छा में होता है, इसलिए आपको यह स्मरण नहीं रहता की पहले भी आप थे, पहले भी आपका अस्तित्व था और पहले भी कोई जीवन था। यह जन्म पहला मालूम होता है और मृत्यु आती है तो वह भी अंतिम मालूम पड़ती है, क्योंकि दोनों तरफ अंधकार है और उस अंधकार में सारी स्मृति खो गई होती है। अगर हम होश पूर्वक मर सके तो हमारा होश पूर्वक जन्म भी होगा, लेकिन मृत्यु अभी भविष्य में है। पीछे लौटा जा सकता है। पिछले जन्म की सारी घटनाओं की सारी स्मृतियां हमारे मस्तिष्क में संग्रहित हैं। अगर हम मस्तिष्क की उन कोशिकाओं को जिसमें सारी स्मृतियां सोई पड़ी है चेतन करने की कला जान जाए तो हम उन अनुभवों से फिर गुजर सकते हैं जिनसे हम बेहोशी में गुजर गए थे। इस कला की सहायता से हम पिछले जन्म में वापस जा सकते हैं और इतना ही नहीं पिछले जन्म की पीछे मृत्यु में भी जा सकते हैं, उसका एकमात्र उपाय है समाधि की यात्रा। जब व्यक्ति जप, ध्यान, साधना करके समाधि की अवस्था में आ जाता है तो पीछे की भी यात्रा करने के काबिल बनता है।
हमारे जीवन के दो छोर हैं – बहिर्मुखी एवं अंतर्मुखी। बहिर्मुखी जीवन में प्रकाश है, हमारी सारी इंद्रिया बहिर्मुखी है। इंद्रियों की और मन की सीमा, खोज की सीमा है और जहां वह सीमा समाप्त हो जाती है – वहां से हमारी सारी इंद्रियां वापस लौट आती हैं और जहां वापस लौट कर आती हैं, वह “भीतर” है और उस “भीतर” में घोर अंधकार है और उस घोर अंधकार में डूबा हुआ परम शून्य है। जहां शून्य होगा वहां परम “शक्ति” होगी। परम शून्य ही परम शक्ति का केंद्र है।
मन की चार अवस्थाएं हैं – जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय। यह जगत द्वन्दात्मक है यानी मिथुनात्मक है। आकर्षण की जो मौलिक सकती है वह एकमात्र कामशक्ति है। आकर्षण शक्ति और काम शक्ति एक दूसरे के पर्याय हैं। तंत्र इसी शक्ति को आदिशक्ति कहता है। तीनों भाव के अनुसार इस आदिशक्ति के तीन रूप है – अपरा, परा और परमा। आदिशक्ति के यह तीनों रूप क्रम से क्रिया शक्ति, बल शक्ति और ज्ञान शक्ति है। तंत्र की सगुण उपासना भूमि में इन्हीं तीनों शक्तियों को महाकाली, महालक्ष्मी और सरस्वती के रूप में परिकल्पित किया गया है।
चेतना और शरीर का जो मिलन बिंदु है वह मूलाधार चक्र (Muladhar Chakra) है। जिसे आत्मशक्ति भी कहते हैं। आत्मशक्ति की जो ऊर्जा है उसकी अभिव्यक्ति शुक्र बिंदु और रजो बिंदु में होती है। जब वह अधोन्मुख होकर प्रभावित होती है तो कामशक्ति बन जाती है और वही जब साधना बल पर उर्ध्वमुख होकर प्रवाहित होने लगती है तो वही कुंडलिनी शक्ति बन जाती है।