Shankh Bhasma Benefits

शंख क्या होता है ? शंख एक समुद्री कीड़ा है, जो समुद्र में तथा उसके आसपास की बड़ी-बड़ी नदियों में पैदा होता है। शंख के दो भेद होते हैं। एक दक्षिणावर्त और दूसरा वामावर्त।  दक्षिणावर्त शंख संयोग से ही कभी किसी को मिलता है। लोकोक्ति है कि जिसके घर में दक्षिणावर्ती शंख रहता है उसके घर से लक्ष्मी कभी नहीं जाती है। औषधि कार्य में वामावर्त शंख ही लिया जाता है, क्योंकि यह अधिक तादाद में मिलता है। 

भस्म के लिए कैसा शंख लें  : निर्मल, चंद्रमा के समान उज्जवल और चमकदार तथा छेदरहित शंख के टुकड़े लेना अच्छा है। शंखनाभि की भस्म विशेष अच्छी मानी जाती है। 

शंख की शोधन विधि (Shankh Refining Method) : अच्छे छिद्र रहित बड़े और वजनदार शंख के टुकड़े ले, उनको मिट्टी के घड़े में डाल, उसमे जल और नींबू का रस डालकर एक घंटा मंद आंच पर पकावें, बाद में निकाल कर गर्म जल से धोकर सुखाकर रख लेने से शुद्ध हो जाता है। 

शंख भस्म बनाने की विधि (How to make Shankh Bhasma) : शुद्ध शंख के छोटे-छोटे टुकड़ों को घृतकुमारी के गुदा में मिलाकर एक मिट्टी की हांडी में रख संधिबंद करके गजपुट में रख आंच दें। स्वांग शीतल होने पर निकाल कर रख लें और यदि भस्म खूब सफेद न हो (कच्चा ही रह गया हो) तो नींबू के रस में खरल कर छोटी-छोटी टिकिया बनाकर धूप में सुखा गजफुट में फूंक दें। 1 से 2 फुट में खूब मुलायम तथा सफेद और तीक्ष्णता रहित शंख भस्म तैयार हो जाती है। 

उक्त विधि से शोधित शंख के टुकड़े को 10 सेर कंडों की या लकड़ी के कोयलों की आंच में फूंक दें। शंख अच्छी तरह फूंक जाने पर अंगुली से दबाने से चूर्ण जैसा हो जाता है। पीछे उसको पत्थर खरल में तीन बार नींबू के रस की भावना देकर छाया में सुखाकर के पीसकर कपडछन करके रख लें। एक आंच से चूर्ण न हो तो पुनः आंच देकर चूर्ण बनने योग्य बना लें। 

– आरोग्य प्रकाश 

शंख भस्म लेने का तरीका (Shankh Bhasma Lene ka Tarika) : 2 से 8 रत्ती, नींबू के रस, मिश्री अथवा गर्म जल के साथ अजीर्ण में और बेल के मुरब्बे के साथ संग्रहणी में तथा काकड़ा सिंगी और पीपल चूर्ण दो-दो रत्ती के साथ हिक्का में दें। 

शंख भस्म के गुण और उपयोग (Shankh Bhasm Ke Gun Aur Upyog)

इसकी भस्म संग्रहणी, नेत्र का फूला, पेट की पीड़ा (दर्द) और तारुण्य पिटिका (युवावस्था में मुंह पर छोटी-छोटी फुंसियां निकलती है, उनको तारुण्य पिटीका या युवान पिटिका कहते हैं) को दूर करती है। यकृत, प्लीहा वृद्धि, गुल्म, अजीर्ण, मंदाग्नि, अफरा आदि को भी नष्ट करती है। इस भस्म में कैल्शियम का अंश बहुत रहता है, अतः कैल्सियम की कमी से शरीर के अंदर जितने विकार पैदा होते हैं उसमें यह बहुत लाभ पहुंचाती है। इसमें कुछ फास्फोरस का भी अंश रहता है। मंदाग्नि या यकृत के विकार से होने वाले उपद्रवों में भी यह भस्म बहुत लाभ पहुंचाती है। बच्चों के ब्रोंकोनिमोनिया (पसली चलना) और डब्बे की बीमारी में श्रृंग भस्म के साथ देने से बहुत लाभ होता है। 

शंख भस्म में क्षार के गुण धर्म बहुत अंश रहने इसे क्षार भी कहते हैं। शंख भस्म और कौड़ी भस्म दोनों के गुणों में बहुत साम्य है क्योंकि दोनों सेंद्रीय चूने के कल्प हैं। फिर भी कोड़ी भस्म से शंख भस्म में विशेष गुण हैं उन्हीं का विवेचन यहाँ किया जायेगा। 

शंख भस्म ग्राही स्तंभन कारक है। अतएव अतिसार में विशेषत: पक्वातिसार में सुहागे का फूल दो रत्ती, अफीम चौथाई रत्ती, जायफल का चूर्ण एक रत्ती में, शंख भस्म 4 रत्ती मिलाकर मधु के साथ देने से बहुत शीघ्र लाभ होता है। इसे शंखोदर रस भी कहते हैं। 

ग्रहणी रोग में, जिसमें बार-बार और पतले दस्त हों, कोष्ठ में दर्द हो और दर्द के साथ थोड़ा थोड़ा पतला दस्त भी हो तो ऐसी दशा में शंख भस्म देने से बहुत लाभ होता है। क्योंकि शंख भस्म में ग्राहक गुण होने से दस्त को रोकती है तथा क्षारीय होने से आम पाचन कर शूल को भी नष्ट करती है। इसलिए पर पर्पटी आदि योगों कि को भी शंख भस्म के साथ मिला कर दिया जाता है। इससे आम पाचन एवं तीव्रशूल (पीड़ा) का समन होता है। स्तंभक होने के कारण दस्त के वेग भी कम हो जाते हैं। 

पित्त के कुपित होने से जो कोष्ठ में शूल होता है या पित्तजन्य अतिसार और कफ पित्त कोष्ठ शूल में जब पेट में वायु भरकर फूल जाए और दर्द भी हो, कोष्ठ की क्रिया बंद हो जाए, अन्न का परिपाक ठीक से न हो, जिससे खट्टी डकारें जलन के साथ आवे। ऐसी परिस्थिति में शंख भस्म देने से बहुत लाभ होता है। शंख भस्म से पेट में भरे वायु का समन और जठराग्नि प्रदीप्त होकर अच्छी तरह पचने लगता है, जिससे पेट फूलना, खट्टी डकार आना बंद हो जाता है। 

अन्न का परिपाक ठीक तरह से न होने के कारण से अमाशय या पक्वाशय में दर्द होने लगे तो शंख भस्म नींबू के रस के साथ या घृत में मिलाकर देने से लाभ होता है। पित्त प्रकृति वाले को शंख भस्म उतना लाभ नहीं करती, जितना वात और कफ प्रकृति वालों को लाभ करती है। 

यकृत और प्लीहा के बढ़ जाने से यह दोनों अपनी क्रिया करने में असमर्थ हो जाते हैं। जिससे अन्नादिक पचने और रस रक्त आदि धातु ठीक तरह से बनने में बाधा पड़ने लगती है। परिणाम यह होता है कि शरीर दुर्बल और पीला-पीला सा दिखाई पड़ने लगता है। मंदाग्नि हो जाती है। भूख कम लगती है। इत्यादि उपद्रव उपस्थित हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में शंख के उपयोग से यकृत और प्लीहा की वृद्धि नष्ट हो जाती है तथा यह अपने-अपने काम को अच्छी तरह करने लग जाते हैं। यदि इसके साथ में मलावरोध भी हो तो किसी औषधि के साथ शंख भस्म देना चाहिए। 

पेट में वायु उत्पन्न होकर शूल होना, अफरा होना, अन्न न पचने के कारण जलन सहित खट्टी डकारें आना आदि उत्पन्न होने पर शंख भस्म 2 रत्ती, हिंगवास्टक चूर्ण 3 माशे मिलाकर गर्म जल से दें। 

यकृत और प्लीहा के बढ़ जाने पर प्रायः क्षारीय (तीक्ष्ण) औषधियां देने की आवश्यकता होती है। परंतु जब मलावरोध न हो तो अन्य क्षारीय औषधियों की अपेक्षा शंख भस्म को मंडूर भस्म में मिलाकर कुमारी आसव के साथ देने से बहुत लाभ होता है। मलावरोध हो तो साथ में रेचक औषधियों का भी प्रयोग करना चाहिए। गुल्म रोग में वज्रक्षार चूर्ण के साथ शंख भस्म देना अच्छा है।

अजीर्ण, मंदाग्नि और अफरा में 1 से 4 रत्ती तक शंख भस्म नींबू रस अथवा मिश्री के साथ या भुनी हींग 1 रत्ती और घृत 6 माशे के साथ दिन भर में दो-तीन बार देने से फायदा होता है। अथवा इसके योग से बनी शंख वटी और महाशंख वटी आदि का भी प्रयोग गर्म जल से करना अच्छा है। 

– साभार : आयुर्वेद सार संग्रह

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