Sarkari babu

आज सरकारी बाबुओं और कर्मचारियों का एक फैशन बन गया है ऑफिस में देर से आना, काम को रखड़ाना, बिना घुस के काम न करना, घंटों तक मोबाइल में व्यस्त रहना, अपने काम को जिम्मेदारी से न करना, एक काम के लिए दस बार दौड़ाना, कोई बोले तो गुस्सा हो जाना। 

सरकार राज या बाबू राज

आप अपने तहसील और ब्लॉक में किसी काम से जाते हैं तो क्या होता है। सरकारी बाबू ऑफिस में कुर्सी पर बैठे हैं कर्तव्य है देश और पब्लिक की सेवा करना लेकिन सरकारी बाबू मोबाइल में व्यस्त हैं। लेखपाल के पास जाइए वह भी अपने काम में व्यस्त हैं खर्चा मिलने के बाद उनको भी फुर्सत मिल जाती है। कृषि विभाग के ऑफिस में जाइए बाबू को गप्पे मारने की फुर्सत है लेकिन पब्लिक का काम करने के लिए फुर्सत नहीं है। गांव के प्रधान के पास जाइए उनके पास टाइम है लेकिन बोलेँगे पीछे से पैसा ही नहीं आ रहा है। सेक्रेटरी के पास जाइए उनके पास भी टाइम नहीं है खर्चा दीजिए तो टाइम हो जाता है। बैंक में जाइए, लाइन लगाइए फिर भी काम जल्दी नहीं हो पाता है क्योंकि आधे काम पीछे के रास्ते से होते हैं। सरकारी डॉक्टर के पास जाइए उसके पास भी टाइम नहीं है लेकिन प्राइवेट पेशेंट देखने के लिए उसके पास भरपूर टाइम है । कोटेदार के पास जाईये बोलेगा हमारा भी खर्चा लगता है इसलिए 5 किलो काट लेते हैं। आज हमारे देश की हालत है कि बिना खर्चा दिए कोई काम नहीं हो पाता है सरकारी बाबू सरकारी सैलरी तो लेते हैं लेकिन पब्लिक से सरकारी खर्चा भी लेते हैं। पब्लिक अपना काम धंधा रोजगार छोड़कर की इन बाबुओं के पास जाती है अपना काम कराने के लिए लेकिन इन बाबुओं के पास मोबाइल चलाने के लिए टाइम है लेकिन पब्लिक का काम करने के लिए टाइम नहीं है। एक घंटा काम करेंगे तो 2 घंटा गप्पे मारेंगे, उसके बाद बोलेंगे कि कल आना। 

“दाम दो और काम लो” 

आज भारत में ऐसी स्थिति बन गई है कि “दाम दो और काम लो” कहीं भी चले जाइए कोई भी सरकारी कर्मचारी है या बाबू बिना दाम के काम नहीं करना चाहता है। दाम दो तो काम होगा ऐसी रणनीति बन गई है। 

बड़े दुख की बात है ऐसे लोगों को जरा सी भी शर्म नहीं आती है कि हमारा कर्तव्य क्या है। ये लोग अपने काम को जिम्मेदारी से नहीं करते हैं अगर अपने काम को सरकारी बाबू जिम्मेदारी समझ ले तो पब्लिक की बहुत सारी समस्याएं हल हो सकती है। आज भारत का एक गरीब आदमी किसी एक काम के लिए अपनी शहर के तहसील या ब्लॉक में काम के लिए जाता है तो कम से कम 5 से 10 चक्कर तो जरूर लगाने पड़ते हैं। जितने का काम नहीं होता है उतना तो चक्कर लगवा कर पब्लिक का पैसे खर्च करवा देते हैं। मुझे लगता है समस्या इन बाबू या कर्मचारियों में नहीं है समस्या तो इंडिया के डीएनए में है जहां ऐसे लोग पैदा हो जाते हैं। कभी-कभी तो पब्लिक इन सरकारी बाबुओं से ऐसे ऊब जाती है कि उसे इच्छा होती है कि अपने सर को दीवार में लगाकर फोड़ दे। एक बाबू बोलेगा की तहसील में जाओ, दूसरा बाबू बोलेगा ब्लॉक में जाओ अब पब्लिक जाए तो जाए कहां। 

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