SukaDev-Parikshit-samwad

जो ग्रहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरूप को नहीं जानते, उनके लिए हजारों बातें कहने, सुनने एवं सोचने, करने की रहती है। उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है। उनकी रात नीद या स्त्री प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय हाय या कुटुंबियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत है। परंतु जीव उनके मोह  में ऐसा पागल सा हो जाता है की रात दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं है।

परीक्षित ने सुखदेव जी से पूछा कि प्रभु ! जो मनुष्य मरणासन्न की अवस्था में हो उसको क्या करना चाहिए ? साथी यह भी बताइए कि मनुष्य मात्र को जीवन में क्या करना चाहिए ? किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करना चाहिए और किसका त्याग करना चाहिए ?

सुखदेव जी ने कहा परीक्षित ! तुम्हारा लोकहित के लिए किया हुआ प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्यों के लिए जितनी भी बातें सुनने स्मरण करने या कीर्तन करने की है उन सब में यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानि  महापुरुष ऐसे प्रश्न का बड़ा आदर करते हैं। जो ग्रहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरूप को नहीं जानते, उनके लिए हजारों बातें कहने, सुनने एवं सोचने, करने की रहती है। उनकी सारी उम्र यूं ही बीत जाती है। उनकी रात नीद या स्त्री प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय हाय या कुटुंबियों के भरण-पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ संबंधी कहा जाता है वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत है। परंतु जीव उनके मोह  में ऐसा पागल सा हो जाता है की रात दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं है। इसलिए परीक्षित ! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है उसे तो सर्वआत्मा, सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण कीर्तन और स्मरण करना चाहिए। मनुष्य जन्म का यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए कि मृत्यु के समय भगवान की स्मृति अवश्य बनी रहे। परीक्षित ! जो निर्गुण स्वरूप में स्थित हैं एवं विधि निषेध की मर्यादा को लाँघ चुके हैं वे बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी प्रायः भगवान के अनंत करुणामय गुणों के वर्णन में रहते हैं। 

द्वापर के अंत में इस भगवदरूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद् भागवत नाम के महापुराण का अपने पिता श्री कृष्ण द्वैपायन से मैंने अध्ययन किया था। मेरी निर्गुण स्वरूप परमात्मा में पूर्ण निष्ठा है फिर भी भगवान श्री कृष्ण की मधुर नीलाओं ने बलात मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने इस पुराण का अध्ययन किया। तुम भगवान के परम भक्त हो इसलिए तुम्हें मैं इसे सुनाऊंगा। जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं उनकी शुद्ध चित्त वृत्ति भगवान श्री कृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम के साथ बहुत शीघ्र लग जाती है। जो लोग लोक या परलोक में किसी भी वस्तु की इच्छा रखते हैं या इसके विपरीत संसार में दुख का अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गए हैं और निर्भय मोक्ष पद को प्राप्त करना चाहते हैं। उन साधकों के लिए तथा योग संपन्न सिद्ध ज्ञानियों के लिए भी समस्त शास्त्रों का यही निर्णय है कि वह भगवान के नामों का प्रेम से संकीर्तन करें। अपने कल्याण साधन की ओर से असावधान रहने वाले पुरुष की वर्षों  लंबी आयु भी अनजाने में व्यर्थ बीत जाती है, उससे क्या लाभ। सावधानी से ज्ञान पूर्वक बिताई हुई घड़ी दो घड़ी भी श्रेष्ठ है क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याण की चेष्टा तो की जा सकती है। राजर्षि  खटवांग अपनी आयु की समाप्ति का समय जान कर दो घड़ी में ही सब कुछ त्याग कर अभय पद को प्राप्त हो गए थे। परीक्षित। अभी तो तुम्हारे जीवन की अवधि 7 दिन की है। इस बीच में ही तुम अपने परम कल्याण के लिए जो कुछ करना चाहिए सब कर लो। 

मृत्यु का समय आने पर मनुष्य घबराए नहीं। उसे चाहिए कि वह वैराग्य के शस्त्र से शरीर और उससे संबंध रखने वालों के प्रति ममता को काट डाले। धैर्य के साथ घर से निकलकर पवित्र तीर्थ में स्नान करें और पवित्र तथा एकांत स्थान में विधि पूर्वक आसन लगाकर बैठ जाए।  तत्पश्चात परम पवित्र ॐ इन 3 मात्राओं से युक्त प्रणव का मन ही मन जप करें। प्राणवायु को वश में करके मन का दमन करें और एक क्षण के लिए भी प्रणव को न भूले। बुद्धि की सहायता से मन के द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटा ले और कर्म की वासनाओं से चंचल हुए मन को विचार के द्वारा रोक कर भगवान के मंगलमय रूप में लगाएं। स्थिर चित्र से भगवान के श्री विग्रह में से किसी एक अंग का ध्यान करें। इस प्रकार एक-एक अंग का ध्यान करते करते विषय वासनाओं से रहित मन को पूर्ण रूप से भगवान में  ऐसा तल्लीन कर दें कि फिर और किसी विषय का चिंतन ही न हो। वही भगवान विष्णु का परम पद है जिसे प्राप्त करके मन भगवत प्रेम स्वरूप आनंद से भर जाता है। यदि भगवान का ध्यान करते समय मन रजोगुण से विक्षिप्त या तमोगुण से मूड हो जाए तो घबराएं नहीं। धैर्य के साथ योग धारणा के द्वारा उसे वश में करना चाहिए, क्योंकि धारणा उक्त दोनों दोषों को मिटा देती है। धारणा स्थिर हो जाने पर ध्यान में जब योगी अपने परम मंगलमय आश्रय भगवान को देखता है तब उसे तुरंत ही भक्तियोग की प्राप्ति हो जाती है। 

-साभार : श्रीमद्भागवत पुराण

FAQ.

  1. मनुष्य को जिंदगी में क्या करना चाहिए?
  2. इंसान को जीवन में क्या चाहिए?
  3. मनुष्य के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण क्या है?
  4. जीवन में क्या नहीं करना चाहिए?
  5. हमें जीवन क्यों मिला है?

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